Friday, November 23, 2007

[ग़ज़ल] ये दिल हमारा मुहब्बत में गरचे ताक़ न था

हाज़िरीन-ए-महफ़िल:

इस साल की अपनी पहली (और आख़िरी!) ग़ज़ल लेकर हाज़िर हूँ. आपके ता'स्सुरात और ख़यालात, आपकी तमाम आरा' और तनक़ीद का मुझे बेसबरी से इन्तेज़ार रहेगा.

मुलाहिज़ा फ़रमाएँ:
  1. ये दिल हमारा मुहब्बत में गरचे ताक़ न था
    मगर कुछ ऐसा भी बेगाना-ए-मज़ाक़ न था!

  2. तिरा ख़याल, तिरे ख़्वाब, और तिरी ख़्वाहिश
    सुकूँ हमें किसी करवट शब-ए-फ़िराक़ न था

  3. उठा ही लेते ग़म-ए-ज़िन्दगी का बार, मगर
    ये शर्त थी कि ग़म-ए-यार हम पे शाक़ न था [1]

  4. वो शोख़ कितनी सफ़ा'ई से ले गया बाज़ी!
    क़िमार-ए-'इश्क़ में दिल अप्ना चुस्त-ओ-चाक़ न था

  5. अब आगे ज़िक्र भी क्या कीजिये रक़ीबों का
    कि दोस्तों ही से जब अपना इत्तिफ़ाक़ न था

  6. लिबास तन को मुयस्सर, न सर को छत थी नसीब
    मगर मिज़ाज में कब शाही तुम.तुराक़ न था

  7. गो उस का हुस्न ही इक हुस्न था जहाँ भर में
    हमारा 'इश्क़ भी इक 'इश्क़ था, मज़ाक़ न था

  8. जहाँ भी चाहा उसे सजदा कर लिया मैं ने
    मिरा ख़ुदा कभी पाबन्द-ए-बाब-ओ-ताक़ न था

  9. रह-ए-वफ़ा में वो क्यूँ साथ मेरा छोड़ गया?
    सफ़र का शौक़ था, मन्ज़िल का इश्तियाक़ न था?

    और मक़ता' 'अर्ज़ है, कि --

  10. 'इलाज हमने भी ढूँढा बहुत, मगर अफ़्सोस!
    तुम्हें तो 'इश्क़ था, "ख़ुर्शीद-जी"! मिराक़[२] न था


[१] गो कि सर्फ़-ओ-नह्व (ग्रामर) की फ़साहत के मद्द-ए-नज़र इस शे'र में "शाक़ न था" के ब-जाए "शाक़ न हो" होना चाहिए, मगर फिर भी मैं इस इस्त'माल को, और शे'र की मौ'जूदा शक्ल को क़ाबिल-ए-क़ुबूल मानता हूँ. अव्वल, शे'र की ज़मीन में ये इस्त'माल खपता ही नहीं, किसी हद तक फबता भी है, और दोयम, इस क़िस्म के फ़िक़रे आज-कल की पुरानी दिल्ली की ऊर्दू बोलनेवाली सड़कों पर 'आम हो चले हैं.

[२] मिराक़: melancholia, एक ज़हनी बीमारी जिसमें दिल पर बेचैनी तारी रहती है, तरह तरह के ख़याल दिमाग़ में आते हैं और इंसान हर वक़्त परेशान-हाल रहता है.

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Tuesday, August 15, 2006

[ग़ज़ल] उसके ख़याल-ओ-ख़्वाब में गुज़री तमाम रात


  1. उसके ख़याल-ओ-ख़्वाब में गुज़री तमाम रात
    या'नी कि इज़्तराब में गुज़री तमाम रात

  2. दिन भर हमें सताती रही फ़िक्र-ए-रोज़गार
    और 'इश्क़ के 'अज़ाब में गुज़री तमाम रात

  3. किस किस ने कौन कौन सा ग़म किस तरह दिया
    अपनी इसी हिसाब में गुज़री तमाम रात

  4. ज़िन्दान-ए-रोज़-ओ-शब से रिहाई किसे नसीब
    इस ख़ानः-ए-ख़राब में गुज़री तमाम रात

  5. साक़ी की इक निगाह ने सर्मस्त यूँ किया
    जैसे मेरी शराब में गुज़री तमाम रात

  6. फिर ज़ुल्फ़-ए-ताबदार का उसकी हुआ है ज़िक्र
    फिर अपनी पेच-ओ-ताब में गुज़री तमाम रात

  7. जब भी सुनाने बैठे उसे दास्तान-ए-शौक़
    बस हसरतों के बाब में गुज़री तमाम रात

  8. "ख़ुरशीद" शब भर उससे न कह पाए हाल-ए-दिल
    लफ़्ज़ों के इन्तिख़ाब में गुज़री तमाम रात

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Saturday, January 14, 2006

[ग़ज़ल] है ज़िन्दगी भी 'अजब आन-बान ओढ़े हुए...

चंद दिनों से दिल पर एक 'अजीब सी कैफ़ियत तारी है, जिसने हाथों को (बा'द एक अरसा-ए-तवील के) फिर क़लम उठाने पर मजबूर किया है. कुछ नये अश'आर ज़ह्न की गहराइयों में ग़ोते खा रहे थे, जिन्हें आज आपके सामने पेश करने कि जसारत कर रहा हूँ. लीजिये, मुलाहिज़ा फ़रमाइए:

  1. है ज़िन्दगी भी 'अजब आन-बान ओढ़े हुए
    ख़मोश जिस्म से मुज़्तर सी जान ओढ़े हुए

  2. हर एक चेहरा जहाँ का निक़ाबपोश मिला
    हर इक बदन मिला इक झूठी शान ओढ़े हुए

  3. है उसके शहर का मुफ़लिस भी कितना दौलतमंद!
    ज़मीं पे सोता है, पर आसमान ओढ़े हुए!

  4. अगरचेः दिल को तो उसपर यक़ीं भी आ जाता
    मगर ये 'अक़्ल थी सौ-सौ गुमान ओढ़े हुए

  5. न पूछ कैसे कटी उसके हिज्र में अपनी
    था लम्हा-लम्हा हज़ार इम्तिहान ओढ़े हुए

  6. है उसका तर्ज़-ए-तकल्लुम भी बस! ख़ुदा रक्खे!
    हर एक बात है इक दास्तान ओढ़े हुए

  7. मिरा लिबास मिरी ज़ात की निशानी है
    मिलूँगा तुमको मैं हिन्दोसितान ओढ़े हुए

  8. जगाओ मत इसे, सोया है बस अभी 'ख़ुरशीद'
    इक 'उम्र भर के सफ़र कि थकान ओढ़े हुए

आप की राय, दाद(!) और तनक़ीद का इन्तेज़ार रहेगा.

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Friday, May 27, 2005

[ग़ज़ल] बचा बचा के वो चलता है पैरहन मुझसे1

  1. हुआ है जब कभी उस शोख़ का सुख़न मुझसे
    जला किये हैं तमाम 'अहल-ए-अनजुमन मुझसे2

  2. बयान कैसे हो उस शख़्स की फबन मुझसे
    सँभलते ही नहीं काम-ओ-लब-ओ-दहन मुझसे

  3. हर एक बात पे मेरी है ता'ना-ज़न ये जहाँ
    रखा है ख़ूब ही दुनिया ने हुस्न-ए-ज़न्न मुझसे!

  4. अब उसका-मेरा त'अल्लुक़ इसी से है वाज़ेह:
    बचा बचा के वो चलता है पैरहन मुझसे

  5. कहूँ तो 'इश्क़ में क्यूँकर मैं ख़ुद को ला-सानी
    जुनूँ में आगे हैं जब क़ैस-ओ-कोहकन मुझसे3

  6. किसी किसी को मिली राह-ए-'इश्क़ में मंज़िल
    हैं फिर भी कितने इसी रह पे गाम-ज़न, मुझ से!

  7. बहुत हैं राह-ए-मुहब्बत में पेच-ओ-ख़म, ऐ दोस्त!
    ये कह रही है तिरी ज़ुल्फ़-ए-पुरशिकन मुझसे

  8. तिरी उमीद, तिरी आरज़ू, तिरी हसरत
    है कोई जिसमें हो बेहतर ये फ़िक्र-ओ-फ़न्न मुझसे?

  9. क़फ़स में हूँ, प' रहाई की कुछ नहीं ख़्वाहिश
    है वज्ह-ए-हैरत-ए-मुर्ग़ान-ए-हर चमन मुझसे

  10. रही है दैर-ओ-हरम से मुझे भी कब रग़बत?
    रखें न राह भी अब शैख़-ओ-बरहमन मुझसे

  11. ग़ज़ल तो कहता हूँ, 'ख़ुरशीद', पर वो बात कहाँ
    'कि मैं सुख़न से हूँ मशहूर और सुख़न मुझसे'1

  1. मिसरा'-ए-तरह राजीव चक्रवर्ती 'नादाँ' ने इनायत फ़रमाया है.
    'कि मैं सुख़न से हूँ मशहूर, और सुख़न मुझसे' [नामा'लूम]

  2. ये शे'र राजीव साहिब के साथ गुफ़्तगू के दौरान हुआ.

  3. ये शे'र दरअस्ल है मेरा ही, मगर आप को 'नादाँ' की ग़ज़ल में भी दर्ज मिलेगा -- ये मेरी जानिब से उन्हें ख़िराज-ए-अक़ीदत है.

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Friday, February 04, 2005

[ग़ज़ल] 'इश्क़ में दिल पे बार सा क्यों है?

  1. 'इश्क़ में दिल पे बार सा क्यों है?
    दर्द बेइख़्तियार सा क्यों है?

  2. ज़िन्दगी से फ़रार सा क्यों है?
    मौत का इन्तेज़ार सा क्यों है?

  3. फिर ये दिल बेक़रार सा क्यों है?
    हर घड़ी अश्कबार सा क्यों है?

  4. है ख़ुशी फिर ख़ुशी, मुझे तेरा
    ग़म भी नापायेदार सा क्यों है?

  5. जब नहीं तुझको पास-ए-'अह्द-ए-वफ़ा,
    फिर मुझे ऐतबार सा क्यों है?

  6. हुस्न से हर बिसात पर हारा:
    'इश्क़ यूँ बदक़िमार सा क्यों है?

  7. कौन गुज़रा है कूचा-ए-दिल से?
    चार सू इक ग़ुबार सा क्यों है?

  8. होंठ जिसके हैं फूल की मानन्द
    उसका हर लफ़्ज़ ख़ार सा क्यों है?

  9. दिल में ज़ख़्मों की हर तरफ़ है बहार
    फिर भी उजड़े दयार सा क्यों है?

  10. चश्म-ए-साक़ी का है असर, वरना
    बिन पिये ही ख़ुमार सा क्यों है?

  11. नामुक़िर* किस गुनह का है 'ख़ुरशीद'?
    ख़ुद को कहता ये पारसा क्यों है?

* नामुक़िर होना: इनकार करना, इक़बाल न करना

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Thursday, February 03, 2005

[आज़ाद नज़्म] 'उम्र-ए-दराज़

यह मेरी पहली कोशिश है 'आज़ाद' (और जदीद) नज़्म कहने की. देखिये अगर किसी क़ाबिल हो:

'उम्र-ए-दराज़

मेरे कमरे की बन्द खिड़की से
एक बूढ़ा दरख़्त दिखता है
जिस पे पतझड़ का ही रहता है ये मौसम
पैहम

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Friday, March 12, 2004

[ग़ज़ल] जो बीत गये, फिर वो ज़माने नहीं आते

  1. 'बचपन के कभी ख़्वाब सुहाने नहीं आते'1
    जो बीत गये, फिर वो ज़माने नहीं आते

  2. ये 'उम्र तिरे ग़म को भुलाने में कटी है
    वरना हमें जीने के बहाने नहीं आते

  3. क्या कहते हो? -- "माज़ी की कोई बात नहीं याद"?
    फिर हम भी तुम्हें याद दिलाने नहीं आते!

  4. वो तो तिरी रुसवाई का डर था हमें, वरना
    होंठों पे मुहब्बत के फ़साने नहीं आते?

  5. दामन का तो हर दाग़ इन अश्कों से मिटा लें
    पर दाग़ कलेजे के मिटाने नहीं आते

  6. ग़ैरों से तुम अपनों की तरह मिलते हो, लेकिन
    रूठे हुए अपनों को मनाने नहीं आते

  7. शा'इर तुम्हें 'ख़ुरशीद' कहें हम भी तो क्योंकर?
    दो शे'र सलीक़े से सुनाने नहीं आते!

1. यह मिसरा' जनाब राजीव चक्रवर्ती 'नादाँ' साहिब ने तजवीज़ किया था: "बचपन के मुझे ख़्वाब सुहाने नहीं आते"

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Tuesday, November 25, 2003

[ग़ज़ल] ग़ैर की बात की ता'ईद किया करते हैं

हाल ही में एक दोस्त का "हुक्मनामा" इरसाल हुआ कि मौक़ा-ए-'ईद-उल-फ़ित्र पर एक शे'र कहूँ. शे'र कहते-कहते ग़ज़ल हो गई, जो आज ही मुकम्मल हुई है. मुलाहिज़ा फ़रमाइये:

  1. ग़ैर की बात की ता'ईद किया करते हैं
    कुछ कहें हम तो वो तनक़ीद किया करते हैं

  2. पुरसिश-ए-हसरत-ए-न.उमीद किया करते हैं
    लोग हर ज़ख़्म की तजदीद किया करते हैं

  3. उनको गर हम से मुहब्बत नहीं, इतना कह दें
    यूँ कनखियों से वो क्यों दीद किया करते हैं

  4. गो के तजदीद-ए-त'अल्लुक़ का नहीं कुछ इमकाँ
    क्या बुरा है जो हम उम्मीद किया करते हैं?

  5. इक तो आते ही नहीं वो, और अगर आ भी गये,
    आते ही जाने की तमहीद किया करते हैं

  6. हम पे है 'इश्क़ की तोहमत, सो वो हम को है क़ुबूल
    ऐसे इलज़ाम की तरदीद किया करते हैं?

  7. दिल को हर हाल में शाद और मुतबस्सिम जो रखें
    वो तो हर रोज़ नई 'ईद किया करते हैं

  8. इनको शा'इर न कहो दोस्तो! 'ख़ुरशीद' तो सिर्फ़
    'ग़ालिब'-ओ-'मीर' की तक़लीद किया करते हैं!

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Saturday, December 21, 2002

[ग़ज़ल] सफ़र ही में रहा ता-ज़िन्दगी मैं

दोस्तो:

एक मुद्दत से जो क़लम बन्द पड़ा था, चन्द रोज़ क़ब्ल उठाया, और देखता क्या हूँ कि एक अजीब-ओ-जदीद रंग के कुछ शे'र हो गये हैं. गरचे 'उमूमन ऐसी काविशों की धज्जियाँ ही उड़ाई जाती हैं, मगर फिर भी मैं ये ग़ज़ल आप की ख़िदमत में पेश करने की जुर'अत कर रहा हूँ. आप सबकी आरा, तनक़ीद, और इस्लाह, दीगर तजावीज़-ओ-त`अस्सुरात का मुझे इन्तेज़ार रहेगा:

'अर्ज़ है --

  1. सफ़र ही में रहा ता-ज़िन्दगी मैं
    वही राहें, वही मंज़िल, वही मैं

  2. हज़ारों ग़म ज़माने में मिले, जब
    ख़ुशी को ढूँढ़ने निकला कभी मैं

  3. मिरी क्या पूछते हो 'उम्र, यारो?
    हर इक पल में जिया हूँ इक सदी मैं

  4. कई बार आ चुकी है मौत मुझको
    प हूँ अब तक असीर-ए-ज़िन्दगी मैं

  5. इन्हीं अश्कों के पीकर चन्द क़तरे,
    बुझा लेता हूँ अपनी तिश्नगी मैं

  6. कभी है दुश्मनी-सी उसके ग़म से
    कभी करता हूँ उससे दोस्ती मैं

  7. *ख़ुदा* की बात फिर कर लेंगे, वा'इज़!
    के हूँ मह्व-ए-तलाश-ए-*आदमी* मैं!

  8. सुनी इस दिल की शोरिश किसने आख़िर?
    सुनेगा कौन इसकी ख़ामुशी? -- मैं!

  9. उसे मैंने, न मुझको उसने देखा --
    खड़े थे, रू-ब-रू, इक आरसी, मैं

  10. उधर वो, उसके शैदा, उसकी महफ़िल
    इधर तनहाई, मेरी आशिक़ी, मैं

    और मक़ता' 'अर्ज़ है, के --

  11. यूँही होते रहे अश'आर, 'ख़ुरशीद'
    तो इक दिन कर ही लूँगा शा'इरी मैं

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Friday, September 06, 2002

[ग़ज़ल] क़फ़स में चैन मिला है न आशियाने में

  1. क़फ़स में चैन मिला है न आशियाने में
    तमाम 'उम्र भटकते रहे ज़माने में

  2. मुहब्बतों का सिला ये मिला ज़माने में --
    हँसी उड़ाई गई अपनी हर फ़साने में!

  3. बस इक चिराग़ की ख़ातिर जिसे जलाया था
    वो आग फैल गई सारे आशियाने में

  4. तिरे ख़याल में वो वक़्त और भी गुज़रा,
    जो वक़्त हमने गुज़ारा तुझे भुलाने में

  5. ख़िज़ाँ से आख़िरी पत्ते ने गिरते-गिरते कहा,
    "अब और देर नहीं है बहार आने में"!!!

  6. गई वो शब, के जब उतरा था चाँद आँगन में
    मगर है रौशनी अब तक ग़रीबख़ाने में!

  7. अभी भरा था ख़ुशी ने इसे ज़रा-सा, के बस
    ग़मों ने लूट मचा दी मिरे ख़ज़ाने में

  8. ग़ज़ब हैं उनकी निगाहों के तीर भी, 'ख़ुरशीद!'
    चलें जिधर को भी, आता है दिल निशाने में

उसी दौरान, के जब मन्दरजा-बाला ग़ज़ल हो रही थी, चन्द और शे'र भी हुए थे. मज़कूरा अश'आर इस ग़ज़ल के तो नहीं हैं, लेकिन इसी बह्र-ओ-ज़मीन में हैं. लगे हाथों उन्हें भी सुनाता चलूँ? :) -- आप चाहें तो इसे एक ग़ज़ल-ए-बेमतला तसव्वुर कर लें --
    'अर्ज़ है:
  1. हँसी हँसी ही में हमको रुला दिया, साहिब
    कुछ एहतियात बरतना था गुदगुदाने में!

  2. मिरी दु'आ के हर इक शब "मिलन की रात" बने
    तुम्हें ये ज़िद्द के कटे रूठने-मनाने में!

  3. ज़रा भी बनने-सँवरने से जब मिली फ़ुरसत
    तो वक़्त ज़ा'या किया हमको आज़माने में! :)

  4. सँभल के रहियेगा, "ख़ुरशीद", नाज़वालों से --
    कहीं कमर न लचक जाए नाज़ उठाने में!!! ;-) LOL

    [ये मक़्ता'अ ख़ास उन लोगों के लिये है जो "lower back pain" की वजह से अकसर परेशान-परेशान से रहते हैं! हा हा हा :)]

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Tuesday, March 26, 2002

[ग़ज़ल] रंज अच्छा है, ग़म अच्छा है ...

  1. रंज अच्छा है, ग़म अच्छा है, मलाल अच्छा है 1
    'इश्क़ में दिल के 'एवज़ जो मिले माल अच्छा है

  2. 'उम्र भर कहते रहे हम कि "जवाब आयेगा ..."
    और वो चुप हो गये कहकर कि "सवाल अच्छा है!"

  3. तेरी तज़मीन के क़ाबिल नहीं 'ख़ुरशीद' मगर
    दिल के ख़ुश रखने को, ग़ालिब, ये ख़याल अच्छा है 2

  1. दाग़ देहलवी
  2. ग़ालिब

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Friday, February 15, 2002

[ग़ज़ल] कब मुहब्बत में सब्र-ओ-ताब हुआ?

मुद्दतों बा'द उठा है ये क़लम, ऐ 'ख़ुरशीद'
ज़ंग कमबख़्त क़लम में नहीं, इस हाथ में था

पेश-ए-ख़िदमत हैं एक ताज़ातरीन तरही ग़ज़ल के कुछ अश'आर. तरही मिसरा'अ Fort Worth, TX में मुक़ीम शा'इर जनाब सरवर राज़ 'सरवर' साहिब का है: "जल्वागर फिर वो माहताब हुआ". मुलाहिज़ा फ़रमाएँ --

  1. कब मुहब्बत में सब्र-ओ-ताब हुआ?
    बस, मुसलसल ग़म-ओ-'अज़ाब हुआ

  2. ग़ैर से उस का जब ख़िताब हुआ
    दिल को क्या रंज-ओ-इज़्तराब हुआ

  3. वरना उस रुख़ पे कब निक़ाब हुआ?
    हम न आये, के बस! हिजाब हुआ!

  4. इक खिलौना उसे भी था दरकार
    हुस्न को 'इश्क़ दस्तयाब हुआ

  5. दीदा-ओ-दिल, ये दो ही थे अपने
    ग़म में, इक दरिया, इक सराब हुआ

  6. मुझको यौम-उल-हिसाब से न डरा!
    ज़िन्दगी भर मिरा हिसाब हुआ

  7. शेख़ पहुँचा था बन के वाँ नासेह
    ख़ुद, ख़राबात में, ख़राब हुआ!

  8. गिर गया आसमाँ की आँखों से:
    वो, जो तारा था, इक शिहाब हुआ

  9. रफ़्ता-रफ़्ता बदल गया वो भी
    क़िस्तों-क़िस्तों में इन्क़लाब हुआ

    क़िता'
  10. मेरी तुरबत पे लिख गया है कोई
    "जा! तिरा इश्क़ कामयाब हुआ!"

  11. "बीती बातों का क्या गिला शिकवा?
    जो हुआ सो हुआ, जनाब! हुआ!"

    क़िता'
  12. कौन हूँ मैं? कहाँ से आया हूँ?
    इन सवालों का क्या जवाब हुआ?

  13. हूँ उसी शहर का मैं बाशिन्दा
    जिसका "आलम में इन्तिख़ाब" हुआ ... (1)

    ... और मक़्ता'अ 'अर्ज़ है, के --

  14. सुबह से शाम तक जला 'ख़ुरशीद'
    "जल्वागर फिर वो माहताब हुआ!" ... (2)

  1. दिल्ली! मीर तक़ी 'मीर' के बन्द की जानिब इशारा है:
    क्या बूद-ओ-बाश पूछो हो, पूरब के साकिनो?
    ...
    "दिल्ली" जो एक शहर था __'आलम में इन्तख़ाब
    ...
    ...
    ...
    हम रहनेवाले हैं उसी उजड़े दयार के!

  2. तरही मिसरा'अ, जो जनाब सरवर 'आलम राज़ "सरवर" का कहा हुआ है.

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Saturday, July 01, 2000

[ग़ज़ल] अब मुहब्बत का याँ रिवाज नहीं

  1. आज कल दिल के वो मिज़ाज नहीं
    अब मुहब्बत का याँ रिवाज नहीं

  2. मेरी तुरबत पे लिख गया कोई:
    "'आशिक़ी मर्ज़-ए-ला'इलाज नहीं" ... (1)

  3. 'इश्क़ ख़ुद ही तबाह होता है
    हुस्न की उसको एहतियाज नहीं

    [एहतियाज = ज़रूरत, हाजत]

  4. हम भी हैं अपने अह्द के मनसूर
    क्या बुरा है जो सर पे ताज नहीं

  5. मीर-ओ-ग़ालिब के दर्जा-ए-फ़न्न तक
    हम भी पहुँचेंगे, लेकिन आज नहीं

  6. हासिल-ए-ज़ीस्त क्या? क़ज़ा! 'ख़ुरशीद,'
    हमको इस पर भी एहतेजाज नहीं

    [एहतेजाज = हरज]

(1)  इस मिसरे' की फ़सीह सूरत यह है:
        मरज़-ए-'इश्क़ ला'इलाज नहीं
क्योंकि सहीह लफ़्ज़ 'मरज़' है, 'मर्ज़' नहीं. मगर बा.इन.हमा यहाँ 'मर्ज़' ही मुस्त'मल है: मेरा ख़याल है कि आज यह तलफ़्फ़ुज़ इस क़दर ज़ुबाँज़द-ए-'आम है कि ग़ैर फ़सीह से ग़लत-उल-'आम फ़सीह हो गया है.

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इब्तिदाइया

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