[ग़ज़ल] ग़ैर की बात की ता'ईद किया करते हैं
हाल ही में एक दोस्त का "हुक्मनामा" इरसाल हुआ कि मौक़ा-ए-'ईद-उल-फ़ित्र पर एक शे'र कहूँ. शे'र कहते-कहते ग़ज़ल हो गई, जो आज ही मुकम्मल हुई है. मुलाहिज़ा फ़रमाइये:
- ग़ैर की बात की ता'ईद किया करते हैं
कुछ कहें हम तो वो तनक़ीद किया करते हैं - पुरसिश-ए-हसरत-ए-न.उमीद किया करते हैं
लोग हर ज़ख़्म की तजदीद किया करते हैं - उनको गर हम से मुहब्बत नहीं, इतना कह दें
यूँ कनखियों से वो क्यों दीद किया करते हैं - गो के तजदीद-ए-त'अल्लुक़ का नहीं कुछ इमकाँ
क्या बुरा है जो हम उम्मीद किया करते हैं? - इक तो आते ही नहीं वो, और अगर आ भी गये,
आते ही जाने की तमहीद किया करते हैं - हम पे है 'इश्क़ की तोहमत, सो वो हम को है क़ुबूल
ऐसे इलज़ाम की तरदीद किया करते हैं? - दिल को हर हाल में शाद और मुतबस्सिम जो रखें
वो तो हर रोज़ नई 'ईद किया करते हैं - इनको शा'इर न कहो दोस्तो! 'ख़ुरशीद' तो सिर्फ़
'ग़ालिब'-ओ-'मीर' की तक़लीद किया करते हैं!
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