[ग़ज़ल] क़फ़स में चैन मिला है न आशियाने में
- क़फ़स में चैन मिला है न आशियाने में
तमाम 'उम्र भटकते रहे ज़माने में - मुहब्बतों का सिला ये मिला ज़माने में --
हँसी उड़ाई गई अपनी हर फ़साने में! - बस इक चिराग़ की ख़ातिर जिसे जलाया था
वो आग फैल गई सारे आशियाने में - तिरे ख़याल में वो वक़्त और भी गुज़रा,
जो वक़्त हमने गुज़ारा तुझे भुलाने में - ख़िज़ाँ से आख़िरी पत्ते ने गिरते-गिरते कहा,
"अब और देर नहीं है बहार आने में"!!! - गई वो शब, के जब उतरा था चाँद आँगन में
मगर है रौशनी अब तक ग़रीबख़ाने में! - अभी भरा था ख़ुशी ने इसे ज़रा-सा, के बस
ग़मों ने लूट मचा दी मिरे ख़ज़ाने में - ग़ज़ब हैं उनकी निगाहों के तीर भी, 'ख़ुरशीद!'
चलें जिधर को भी, आता है दिल निशाने में
उसी दौरान, के जब मन्दरजा-बाला ग़ज़ल हो रही थी, चन्द और शे'र भी हुए थे. मज़कूरा अश'आर इस ग़ज़ल के तो नहीं हैं, लेकिन इसी बह्र-ओ-ज़मीन में हैं. लगे हाथों उन्हें भी सुनाता चलूँ? :) -- आप चाहें तो इसे एक ग़ज़ल-ए-बेमतला तसव्वुर कर लें --
- 'अर्ज़ है:
- हँसी हँसी ही में हमको रुला दिया, साहिब
कुछ एहतियात बरतना था गुदगुदाने में! - मिरी दु'आ के हर इक शब "मिलन की रात" बने
तुम्हें ये ज़िद्द के कटे रूठने-मनाने में! - ज़रा भी बनने-सँवरने से जब मिली फ़ुरसत
तो वक़्त ज़ा'या किया हमको आज़माने में! :) - सँभल के रहियेगा, "ख़ुरशीद", नाज़वालों से --
कहीं कमर न लचक जाए नाज़ उठाने में!!! ;-) LOL
[ये मक़्ता'अ ख़ास उन लोगों के लिये है जो "lower back pain" की वजह से अकसर परेशान-परेशान से रहते हैं! हा हा हा :)]
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