Friday, February 15, 2002

[ग़ज़ल] कब मुहब्बत में सब्र-ओ-ताब हुआ?

मुद्दतों बा'द उठा है ये क़लम, ऐ 'ख़ुरशीद'
ज़ंग कमबख़्त क़लम में नहीं, इस हाथ में था

पेश-ए-ख़िदमत हैं एक ताज़ातरीन तरही ग़ज़ल के कुछ अश'आर. तरही मिसरा'अ Fort Worth, TX में मुक़ीम शा'इर जनाब सरवर राज़ 'सरवर' साहिब का है: "जल्वागर फिर वो माहताब हुआ". मुलाहिज़ा फ़रमाएँ --

  1. कब मुहब्बत में सब्र-ओ-ताब हुआ?
    बस, मुसलसल ग़म-ओ-'अज़ाब हुआ

  2. ग़ैर से उस का जब ख़िताब हुआ
    दिल को क्या रंज-ओ-इज़्तराब हुआ

  3. वरना उस रुख़ पे कब निक़ाब हुआ?
    हम न आये, के बस! हिजाब हुआ!

  4. इक खिलौना उसे भी था दरकार
    हुस्न को 'इश्क़ दस्तयाब हुआ

  5. दीदा-ओ-दिल, ये दो ही थे अपने
    ग़म में, इक दरिया, इक सराब हुआ

  6. मुझको यौम-उल-हिसाब से न डरा!
    ज़िन्दगी भर मिरा हिसाब हुआ

  7. शेख़ पहुँचा था बन के वाँ नासेह
    ख़ुद, ख़राबात में, ख़राब हुआ!

  8. गिर गया आसमाँ की आँखों से:
    वो, जो तारा था, इक शिहाब हुआ

  9. रफ़्ता-रफ़्ता बदल गया वो भी
    क़िस्तों-क़िस्तों में इन्क़लाब हुआ

    क़िता'
  10. मेरी तुरबत पे लिख गया है कोई
    "जा! तिरा इश्क़ कामयाब हुआ!"

  11. "बीती बातों का क्या गिला शिकवा?
    जो हुआ सो हुआ, जनाब! हुआ!"

    क़िता'
  12. कौन हूँ मैं? कहाँ से आया हूँ?
    इन सवालों का क्या जवाब हुआ?

  13. हूँ उसी शहर का मैं बाशिन्दा
    जिसका "आलम में इन्तिख़ाब" हुआ ... (1)

    ... और मक़्ता'अ 'अर्ज़ है, के --

  14. सुबह से शाम तक जला 'ख़ुरशीद'
    "जल्वागर फिर वो माहताब हुआ!" ... (2)

  1. दिल्ली! मीर तक़ी 'मीर' के बन्द की जानिब इशारा है:
    क्या बूद-ओ-बाश पूछो हो, पूरब के साकिनो?
    ...
    "दिल्ली" जो एक शहर था __'आलम में इन्तख़ाब
    ...
    ...
    ...
    हम रहनेवाले हैं उसी उजड़े दयार के!

  2. तरही मिसरा'अ, जो जनाब सरवर 'आलम राज़ "सरवर" का कहा हुआ है.

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