Friday, February 04, 2005

[ग़ज़ल] 'इश्क़ में दिल पे बार सा क्यों है?

  1. 'इश्क़ में दिल पे बार सा क्यों है?
    दर्द बेइख़्तियार सा क्यों है?

  2. ज़िन्दगी से फ़रार सा क्यों है?
    मौत का इन्तेज़ार सा क्यों है?

  3. फिर ये दिल बेक़रार सा क्यों है?
    हर घड़ी अश्कबार सा क्यों है?

  4. है ख़ुशी फिर ख़ुशी, मुझे तेरा
    ग़म भी नापायेदार सा क्यों है?

  5. जब नहीं तुझको पास-ए-'अह्द-ए-वफ़ा,
    फिर मुझे ऐतबार सा क्यों है?

  6. हुस्न से हर बिसात पर हारा:
    'इश्क़ यूँ बदक़िमार सा क्यों है?

  7. कौन गुज़रा है कूचा-ए-दिल से?
    चार सू इक ग़ुबार सा क्यों है?

  8. होंठ जिसके हैं फूल की मानन्द
    उसका हर लफ़्ज़ ख़ार सा क्यों है?

  9. दिल में ज़ख़्मों की हर तरफ़ है बहार
    फिर भी उजड़े दयार सा क्यों है?

  10. चश्म-ए-साक़ी का है असर, वरना
    बिन पिये ही ख़ुमार सा क्यों है?

  11. नामुक़िर* किस गुनह का है 'ख़ुरशीद'?
    ख़ुद को कहता ये पारसा क्यों है?

* नामुक़िर होना: इनकार करना, इक़बाल न करना

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Thursday, February 03, 2005

[आज़ाद नज़्म] 'उम्र-ए-दराज़

यह मेरी पहली कोशिश है 'आज़ाद' (और जदीद) नज़्म कहने की. देखिये अगर किसी क़ाबिल हो:

'उम्र-ए-दराज़

मेरे कमरे की बन्द खिड़की से
एक बूढ़ा दरख़्त दिखता है
जिस पे पतझड़ का ही रहता है ये मौसम
पैहम

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