Friday, March 12, 2004

[ग़ज़ल] जो बीत गये, फिर वो ज़माने नहीं आते

  1. 'बचपन के कभी ख़्वाब सुहाने नहीं आते'1
    जो बीत गये, फिर वो ज़माने नहीं आते

  2. ये 'उम्र तिरे ग़म को भुलाने में कटी है
    वरना हमें जीने के बहाने नहीं आते

  3. क्या कहते हो? -- "माज़ी की कोई बात नहीं याद"?
    फिर हम भी तुम्हें याद दिलाने नहीं आते!

  4. वो तो तिरी रुसवाई का डर था हमें, वरना
    होंठों पे मुहब्बत के फ़साने नहीं आते?

  5. दामन का तो हर दाग़ इन अश्कों से मिटा लें
    पर दाग़ कलेजे के मिटाने नहीं आते

  6. ग़ैरों से तुम अपनों की तरह मिलते हो, लेकिन
    रूठे हुए अपनों को मनाने नहीं आते

  7. शा'इर तुम्हें 'ख़ुरशीद' कहें हम भी तो क्योंकर?
    दो शे'र सलीक़े से सुनाने नहीं आते!

1. यह मिसरा' जनाब राजीव चक्रवर्ती 'नादाँ' साहिब ने तजवीज़ किया था: "बचपन के मुझे ख़्वाब सुहाने नहीं आते"

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