[ग़ज़ल] कब मुहब्बत में सब्र-ओ-ताब हुआ?
मुद्दतों बा'द उठा है ये क़लम, ऐ 'ख़ुरशीद'
ज़ंग कमबख़्त क़लम में नहीं, इस हाथ में था
पेश-ए-ख़िदमत हैं एक ताज़ातरीन तरही ग़ज़ल के कुछ अश'आर. तरही मिसरा'अ Fort Worth, TX में मुक़ीम शा'इर जनाब सरवर राज़ 'सरवर' साहिब का है: "जल्वागर फिर वो माहताब हुआ". मुलाहिज़ा फ़रमाएँ --
- कब मुहब्बत में सब्र-ओ-ताब हुआ?
बस, मुसलसल ग़म-ओ-'अज़ाब हुआ - ग़ैर से उस का जब ख़िताब हुआ
दिल को क्या रंज-ओ-इज़्तराब हुआ - वरना उस रुख़ पे कब निक़ाब हुआ?
हम न आये, के बस! हिजाब हुआ! - इक खिलौना उसे भी था दरकार
हुस्न को 'इश्क़ दस्तयाब हुआ - दीदा-ओ-दिल, ये दो ही थे अपने
ग़म में, इक दरिया, इक सराब हुआ - मुझको यौम-उल-हिसाब से न डरा!
ज़िन्दगी भर मिरा हिसाब हुआ - शेख़ पहुँचा था बन के वाँ नासेह
ख़ुद, ख़राबात में, ख़राब हुआ! - गिर गया आसमाँ की आँखों से:
वो, जो तारा था, इक शिहाब हुआ - रफ़्ता-रफ़्ता बदल गया वो भी
क़िस्तों-क़िस्तों में इन्क़लाब हुआ
क़िता' - मेरी तुरबत पे लिख गया है कोई
"जा! तिरा इश्क़ कामयाब हुआ!" - "बीती बातों का क्या गिला शिकवा?
जो हुआ सो हुआ, जनाब! हुआ!"
क़िता' - कौन हूँ मैं? कहाँ से आया हूँ?
इन सवालों का क्या जवाब हुआ? - हूँ उसी शहर का मैं बाशिन्दा
जिसका "आलम में इन्तिख़ाब" हुआ ... (1)
... और मक़्ता'अ 'अर्ज़ है, के -- - सुबह से शाम तक जला 'ख़ुरशीद'
"जल्वागर फिर वो माहताब हुआ!" ... (2)
- दिल्ली! मीर तक़ी 'मीर' के बन्द की जानिब इशारा है:
क्या बूद-ओ-बाश पूछो हो, पूरब के साकिनो?
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"दिल्ली" जो एक शहर था __'आलम में इन्तख़ाब
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हम रहनेवाले हैं उसी उजड़े दयार के! - तरही मिसरा'अ, जो जनाब सरवर 'आलम राज़ "सरवर" का कहा हुआ है.
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