[ग़ज़ल] है ज़िन्दगी भी 'अजब आन-बान ओढ़े हुए...
चंद दिनों से दिल पर एक 'अजीब सी कैफ़ियत तारी है, जिसने हाथों को (बा'द एक अरसा-ए-तवील के) फिर क़लम उठाने पर मजबूर किया है. कुछ नये अश'आर ज़ह्न की गहराइयों में ग़ोते खा रहे थे, जिन्हें आज आपके सामने पेश करने कि जसारत कर रहा हूँ. लीजिये, मुलाहिज़ा फ़रमाइए:
- है ज़िन्दगी भी 'अजब आन-बान ओढ़े हुए
ख़मोश जिस्म से मुज़्तर सी जान ओढ़े हुए
- हर एक चेहरा जहाँ का निक़ाबपोश मिला
हर इक बदन मिला इक झूठी शान ओढ़े हुए
- है उसके शहर का मुफ़लिस भी कितना दौलतमंद!
ज़मीं पे सोता है, पर आसमान ओढ़े हुए!
- अगरचेः दिल को तो उसपर यक़ीं भी आ जाता
मगर ये 'अक़्ल थी सौ-सौ गुमान ओढ़े हुए
- न पूछ कैसे कटी उसके हिज्र में अपनी
था लम्हा-लम्हा हज़ार इम्तिहान ओढ़े हुए
- है उसका तर्ज़-ए-तकल्लुम भी बस! ख़ुदा रक्खे!
हर एक बात है इक दास्तान ओढ़े हुए
- मिरा लिबास मिरी ज़ात की निशानी है
मिलूँगा तुमको मैं हिन्दोसितान ओढ़े हुए
- जगाओ मत इसे, सोया है बस अभी 'ख़ुरशीद'
इक 'उम्र भर के सफ़र कि थकान ओढ़े हुए
आप की राय, दाद(!) और तनक़ीद का इन्तेज़ार रहेगा.
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