[ग़ज़ल] जो बीत गये, फिर वो ज़माने नहीं आते
- 'बचपन के कभी ख़्वाब सुहाने नहीं आते'1
जो बीत गये, फिर वो ज़माने नहीं आते - ये 'उम्र तिरे ग़म को भुलाने में कटी है
वरना हमें जीने के बहाने नहीं आते - क्या कहते हो? -- "माज़ी की कोई बात नहीं याद"?
फिर हम भी तुम्हें याद दिलाने नहीं आते! - वो तो तिरी रुसवाई का डर था हमें, वरना
होंठों पे मुहब्बत के फ़साने नहीं आते? - दामन का तो हर दाग़ इन अश्कों से मिटा लें
पर दाग़ कलेजे के मिटाने नहीं आते - ग़ैरों से तुम अपनों की तरह मिलते हो, लेकिन
रूठे हुए अपनों को मनाने नहीं आते - शा'इर तुम्हें 'ख़ुरशीद' कहें हम भी तो क्योंकर?
दो शे'र सलीक़े से सुनाने नहीं आते!
1. यह मिसरा' जनाब राजीव चक्रवर्ती 'नादाँ' साहिब ने तजवीज़ किया था: "बचपन के मुझे ख़्वाब सुहाने नहीं आते"
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