Tuesday, November 25, 2003

[ग़ज़ल] ग़ैर की बात की ता'ईद किया करते हैं

हाल ही में एक दोस्त का "हुक्मनामा" इरसाल हुआ कि मौक़ा-ए-'ईद-उल-फ़ित्र पर एक शे'र कहूँ. शे'र कहते-कहते ग़ज़ल हो गई, जो आज ही मुकम्मल हुई है. मुलाहिज़ा फ़रमाइये:

  1. ग़ैर की बात की ता'ईद किया करते हैं
    कुछ कहें हम तो वो तनक़ीद किया करते हैं

  2. पुरसिश-ए-हसरत-ए-न.उमीद किया करते हैं
    लोग हर ज़ख़्म की तजदीद किया करते हैं

  3. उनको गर हम से मुहब्बत नहीं, इतना कह दें
    यूँ कनखियों से वो क्यों दीद किया करते हैं

  4. गो के तजदीद-ए-त'अल्लुक़ का नहीं कुछ इमकाँ
    क्या बुरा है जो हम उम्मीद किया करते हैं?

  5. इक तो आते ही नहीं वो, और अगर आ भी गये,
    आते ही जाने की तमहीद किया करते हैं

  6. हम पे है 'इश्क़ की तोहमत, सो वो हम को है क़ुबूल
    ऐसे इलज़ाम की तरदीद किया करते हैं?

  7. दिल को हर हाल में शाद और मुतबस्सिम जो रखें
    वो तो हर रोज़ नई 'ईद किया करते हैं

  8. इनको शा'इर न कहो दोस्तो! 'ख़ुरशीद' तो सिर्फ़
    'ग़ालिब'-ओ-'मीर' की तक़लीद किया करते हैं!

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