[ग़ज़ल] सफ़र ही में रहा ता-ज़िन्दगी मैं
दोस्तो:
एक मुद्दत से जो क़लम बन्द पड़ा था, चन्द रोज़ क़ब्ल उठाया, और देखता क्या हूँ कि एक अजीब-ओ-जदीद रंग के कुछ शे'र हो गये हैं. गरचे 'उमूमन ऐसी काविशों की धज्जियाँ ही उड़ाई जाती हैं, मगर फिर भी मैं ये ग़ज़ल आप की ख़िदमत में पेश करने की जुर'अत कर रहा हूँ. आप सबकी आरा, तनक़ीद, और इस्लाह, दीगर तजावीज़-ओ-त`अस्सुरात का मुझे इन्तेज़ार रहेगा:
'अर्ज़ है --
- सफ़र ही में रहा ता-ज़िन्दगी मैं
वही राहें, वही मंज़िल, वही मैं - हज़ारों ग़म ज़माने में मिले, जब
ख़ुशी को ढूँढ़ने निकला कभी मैं - मिरी क्या पूछते हो 'उम्र, यारो?
हर इक पल में जिया हूँ इक सदी मैं - कई बार आ चुकी है मौत मुझको
प हूँ अब तक असीर-ए-ज़िन्दगी मैं - इन्हीं अश्कों के पीकर चन्द क़तरे,
बुझा लेता हूँ अपनी तिश्नगी मैं - कभी है दुश्मनी-सी उसके ग़म से
कभी करता हूँ उससे दोस्ती मैं - *ख़ुदा* की बात फिर कर लेंगे, वा'इज़!
के हूँ मह्व-ए-तलाश-ए-*आदमी* मैं! - सुनी इस दिल की शोरिश किसने आख़िर?
सुनेगा कौन इसकी ख़ामुशी? -- मैं! - उसे मैंने, न मुझको उसने देखा --
खड़े थे, रू-ब-रू, इक आरसी, मैं - उधर वो, उसके शैदा, उसकी महफ़िल
इधर तनहाई, मेरी आशिक़ी, मैं
और मक़ता' 'अर्ज़ है, के -- - यूँही होते रहे अश'आर, 'ख़ुरशीद'
तो इक दिन कर ही लूँगा शा'इरी मैं
Labels: ग़ज़ल