[ग़ज़ल] अब मुहब्बत का याँ रिवाज नहीं
- आज कल दिल के वो मिज़ाज नहीं
अब मुहब्बत का याँ रिवाज नहीं - मेरी तुरबत पे लिख गया कोई:
"'आशिक़ी मर्ज़-ए-ला'इलाज नहीं" ... (1) - 'इश्क़ ख़ुद ही तबाह होता है
हुस्न की उसको एहतियाज नहीं
[एहतियाज = ज़रूरत, हाजत] - हम भी हैं अपने अह्द के मनसूर
क्या बुरा है जो सर पे ताज नहीं - मीर-ओ-ग़ालिब के दर्जा-ए-फ़न्न तक
हम भी पहुँचेंगे, लेकिन आज नहीं - हासिल-ए-ज़ीस्त क्या? क़ज़ा! 'ख़ुरशीद,'
हमको इस पर भी एहतेजाज नहीं
[एहतेजाज = हरज]
(1) इस मिसरे' की फ़सीह सूरत यह है:
मरज़-ए-'इश्क़ ला'इलाज नहीं
क्योंकि सहीह लफ़्ज़ 'मरज़' है, 'मर्ज़' नहीं. मगर बा.इन.हमा यहाँ 'मर्ज़' ही मुस्त'मल है: मेरा ख़याल है कि आज यह तलफ़्फ़ुज़ इस क़दर ज़ुबाँज़द-ए-'आम है कि ग़ैर फ़सीह से ग़लत-उल-'आम फ़सीह हो गया है.
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